देश की मीडिया अभी अपनी विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से गुज़र रही है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, उसपर सत्ता और पैसों का दबाव वैसा कभी नहीं रहा था जैसा आज है। वज़ह साफ़ है। चैनल और अखबार चलाना अब अब कोई मिशन या आन्दोलन नहीं। राष्ट्र के पास जब कोई मिशन, कोई आदर्श, क ोई गंतव्य नहीं तो मीडिया के पास भी क्या होगा ? 'जो बिकता है, वही दिखता है' के इस दौर में पत्रकारिता अब खालिस व्यवसाय है जिसपर किसी लक्ष्य के लिए समर्पित लोगों का नहीं, बड़े और छोटे व्यावसायिक घरानों का लगभग एकच्छत्र कब्ज़ा है। जो मुट्ठी भर लोग मीडिया को लोकचेतना का आईना बनाना चाहते हैं, उनके आगे साधनों के अभाव में प्रचार-प्रसार और वितरण का संकट है। कुल मिलाकर मीडिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उसमें दूर तक उम्मीद नज़र नहीं आती। वैसे इस देश ने अभी पिछली सदी में आज़ादी की लड़ाई के दौरान अखबारों का स्वर्ण काल भी देखा है। देश की आज़ादी, समाज सुधार और जन-समस्याओं को समर्पित ऐसे अखबारों और पत्रकारों की सूची लंबी है। बेशक़ जनपक्षधर पत्रकारिता के इस दौर की शुरुआत उन्नीसवी सदी में उर्दू के एक अखबार से हुई थी। आमजन ...