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हैदराबाद में बोर्ड का कार्यक्रम व मौलाना सलमान नदवी विवाद - आखिर मसले का हल क्या ?

इंजीनियर अफ्फान नोमानी
हैदराबाद में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तीन दिवसीय कार्यक्रम का समापन 11 फरवरी 2018 ,रविवार को सफलतापूर्वक  हुआ । 10 व 11 फरवरी को बोर्ड के सदस्यों के बीच अहम बैठक हुई जिसमें तीन तलाक व बाबरी मस्जिद विषय पर सर्वसम्मति से अहम फैसले किए गए जिसमें बाबरी मस्जिद पर दिए बयान से घिरे मौलाना सलमान नदवी का बोर्ड की सदस्यता से निरस्त  
करने का फैसला भी इसी कड़ी का अहम हिस्सा रहा। लेकिन मौलाना सलमान नदवी का बोर्ड से सदस्यता निरस्त करने के बाद मदरसों व सोशल मीडिया पर  मुस्लिम हल्कों में जो आपसी मतभेद व खाई बढ़ती हुई दिखाई दे रही है वो मुस्लिम समाज व मुस्लिम संगठनों को इस पर गौर से विचार विमर्श जरूर करना चाहिए कि आखिर आपसी एकता व एकजुटता को कायम कैसे रखा जाए।  
मौलाना सलमान नदवी का श्री श्री रवि शंकर से मुलाकात के बाद बोर्ड पर बढ़ते दबाव के मद्देनजर बोर्ड की चार सदस्यीय टीम ( मौलाना राबेए हसनी नदवी, मौलाना वली रहमानी,  मौलाना मौलाना खालीद सैफुल्लाह रहमानी  व मौलाना अरशद मदनी ) का गठन हुआ जिनके परिणामस्वरूप मौलाना सलमान नदवी को बोर्ड की सदस्यता से निरस्त  करने का फैसला लिया गया ।
बोर्ड ने मौलाना सलमान नदवी के ताल्लुक से जो फैसला दिया उससे समाज में एक सकारात्मक संदेश जरूर गया लेकिन मौलाना नदवी का मुस्लिम  व अन्य समुदाय में बढ़ते प्रभाव का भी इनकार नहीं किया जा सकता है।



सुप्रीम कोर्ट द्वारा बाबरी मस्जिद- राम मंदिर  विवाद को जमीन विवाद करार देना व बोर्ड का हैदराबाद में बैठक की घोषणा के बाद श्री श्री रवि शंकर का मौलाना सलमान नदवी से मुलाकात कर अदालत व बोर्ड दोनों को हल्का दिखाने की भरपूर कोशिश हुई जिसका सीधा संबंध शुद्ध रूप से राजनीति से प्रेरित था ।
सवाल यह है कि जब बाबरी मस्जिद- राम मंदिर विवाद  लंबे अर्सो से अदालत में लंबित  है जिसका सीधा संबंध किसी दो भाईयो के बीच लड़ने झगड़ने का केस नहीं है जिसे बातचीत कर सुलझाया जा सके बल्कि ये मामला पुरे देश से जुड़ा हुआ है जिस पर पूरी दुनिया की निगाहें जमीं हुई है। ऐसे में श्री श्री रवि शंकर व मौलाना सलमान नदवी का इस मामले में व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप करना व अदालत से बाहर मसले को सुलझाने की बात करना दोनों  संविधानिक रूप से अनुचित है। यह सिर्फ सस्ती लोकप्रियता पाने के अलावा महज़ कुछ नहीं है।
बाबरी मस्जिद- राम मंदिर  विवाद हिन्दुस्तान के इतिहास का सबसे बड़े विवाद में से एक है जिसका हल देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट पर ही छोड़ देना चाहिए । जो भी फैसला आएगा सभी भारतीयों को तस्लीम कर लेना चाहिए। लेकिन देश की विंडबना देखिये कि कई हिन्दुत्ववादी ये कहते हुए नज़र आते हैं कि - " अगर अदालत का फैसला मंदिर के पक्ष में नहीं आता है तो हम उसे तस्लीम नहीं करेंगे " । इस तरह के बात करने वाले प्रत्यक्ष रूप से संविधानिक प्रणाली के विरुद्ध कानून को ताक पर रखकर अदालत पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन सरकार ऐसे लोगों पर सख्ती करने के बजाय खामुश तमाशा देख रही है।

अफसोस तो मौलाना सलमान नदवी जैसे कद्दावर इस्लामी स्कालर पर भी आता जिनका काम कोम के अन्दर आपसी एकता, बन्धुता व सम्प्रभुता को बनाए रखने की है लेकिन मौलाना  नदवी  अपनी हठ धर्मिता पर कायम रहते हुए अपने मिशन को जारी रखने का एलान किया है, जिसके अंतर्गत वह तीन महीनों के अंदर देश के विभिन्न साधु- संतों व शंकराचार्यो से मिलने व बोर्ड में मौजूद उलेमा व दानिश्वर को बेनकाब करने का एलान किया है। जिसका सीधा -सीधा फायदा देश में मौजूद कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी  ताकतों को मिलता दिख रहा है। हैरत की बात है कि जो बात हिन्दुत्ववादी कहने से कभी कतराते है वो मौलाना सलमान नदवी बिना लाग लपेट मीडिया में सीधा कहते हुए नज़र आ रहे हैं।
9 फरवरी 2018 को हैदराबाद में बोर्ड की बैठक में मौलाना सलमान नदवी के साथ कमाल फारुकी व एसक्युआर इलियास के बीच  जो तु-तु मैं-मैं हुआ उस घटना को हम जायज़ नहीं ठहरा सकते। लेकिन मीडिया से रूबरू होते हुए मौलाना सलमान नदवी अन्य उलेमा पर कीचड़ उछालते नज़र आए वो एक अच्छे इस्लामी स्कालर व कोम व मिल्लत के लिए अच्छा नहीं है। साथ ही सोशल मीडिया पर मौलाना नदवी के जबाव में गाली- गलौज व अभद्र भाषा के उपयोग को सही नहीं ठहराया जा सकता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबको अपनी -अपनी बात कहने व विरोध जताने का हक है, लेकिन समाजिक व्यवस्था को भन्ग करने व अभद्र भाषा का इस्तेमाल दोनों सभ्य समाज के लिए उचित नहीं है ।
जब किसी पीढ़ी पर , किसी युग में नैतिक पतन का ऐसा दौरा पड़ता है अथवा वह किसी इंसानी साजिश या किसी फूट डालने वाली ताकत का शिकार होती है उस समय दो वर्ग मैदान में आते है - एक बुद्धिजीवियों का वर्ग और दूसरा धार्मिक लोगों का वर्ग। यह दो वर्ग हैं जिनमें बिगाड़ सबसे अन्त में दाखिल होता है। इतिहास हमें बताता है कि बिगाड़ अन्त में जिस वर्ग में दाखिल होता है  वह  मजहबी तब्का है उसके बाद बुद्धिजीवियों का वर्ग है। लेकिन जब इन दो वर्गों में भी बिगाड़ आ जाये तो फिर ऐसे समाज को कोई चीज़ बचा नहीं सकती।
जिस तरह से मुस्लिम समाज अपने वर्चस्व के लिए मसलक व विभिन्न संगठनों में आपसी मतभेद व विवाद पैदा होता जा रहा है  मुझे डर  मालुम होता है कि भविष्य में इतिहासकार जब इस समाज का इतिहास लिखेगा जिसमें हम और आप जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो कहीं यह न लिखें कि यह घटना उस समय घटित हुई जब देश में प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान मुस्लिम यूनिवर्सिटी व जामिया मिलिया मौजूद थी, और दारुल उलुम देवबंद व नदवतुल उल्मा मौजूद था।


( लेखक इंजीनियर अफ्फान नोमानी , रिसर्च स्कॉलर व स्तम्भकार है  affannomani02@gmail.com ,7729843052 ).

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