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अफ्फान नोमानी ने अपने रिसर्च में सावरकर की खोली पोली


हिंदुत्व के त्रिमूर्ति - विनायक दामोदर सावरकर, डॉ केशव बलि हेडगेवार और माधव सदाशिव गोलवलकर। हेडगेवार जहां आरएसएस के संस्थापक के तौर पर जाने जाते हैं तो विनायक दामोदर सावरकर को हिंदू  महासभा का प्रमुख और हिंदुत्व की विचारधारा के अविष्कारक के तौर पर। जबकि गुरु गोलवलकर ने संघ को बाल पँख प्रदान करने के साथ उसको बनाने और उसे वैचारिक आधार प्रदान करने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। डॉक्टर हेडगेवार देश की स्वतंत्रता से पहले ही मर गए थे। इसलिए स्वतंत्रता और विभाजन के परिणामस्वरुप पैदा होने वाले हालात को नहीं देख सके थे, लेकिन सावरकर और गोलवलकर ने देश की आज़ादी को देखा और उसके मद्देनजर अपनी कल्पनाओं और क्रियाओं पर आधारित देश बनाने के संघर्ष में लग गए।
सावरकर के संबंध में भी यह नहीं कह सकते कि वह बाद के ग़ुलाम हिंदुस्तान में देश को अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ाद कराने का जुनून पहले की तरह रखते थे। उनका मन ग़ुलामी के दौर में सांप्रदायिक प्रभाव से प्रभावित और मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध हो गया था
जब उनके जीवन का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि शुरुआती दिनों में सावरकर देश की स्वतंत्रता और उसके लाभ हानि को समग्र संदर्भ में देखते थे, लेकिन बाद के दिनों में उनपर सांप्रदायिकता हावी हो गई और केवल देश के हिंदू समुदाय के लाभ हानि के पैमाने से सारी वस्तुओं को देखने लगे और सभी संघर्षों का केंद्र हिंदू समुदाय हो जाता है। उसी को दृढ़, गरिमायुक्त, संयुक्त स्थिर बनाने के उद्देश्य नज़र सामने आते हैं।
 सावरकर 28 मई 1883 0 को नासिक के निकट भागपुर गांव में एक ब्राह्मण घर में पैदा हुए। परिवार वाले सावरकर जाति के थे। यह लोग अतीत से संस्कृत के ज्ञानी और ज़मींदार चले रहे थे। 1896 में आजमगढ़ में जब संप्रदायिक दंगे आरंभ हुए उसके बाद मुंबई आदि में जब सांप्रदायिक तनाव और झगड़े का सिलसिला चला तो इन झगड़े और फ़सादों का सावरकर पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपने स्कूल के साथियों को हमले से लड़ने का प्रशिक्षण देकर एक दस्ता तैयार किया, इस टोली में सावरकर ने काफ़ी जोश भर दिया था इससे सावरकर के स्वभाव का अनुमान लगाया जा सकता है। 
 ब्रिटिश ने पहली मर्तबा 13 मार्च 1910 को सावरकर को गिरफ्तार किया सावरकर पर तीन आरोप के   तहत मुकदमे चलाए गए और 25, 25 वर्ष की दो सजा सुनाई गई उस समय सावरकर की आयु केवल 27 वर्ष की थी। सावरकर पर जिन आरोप के तहत मुकदमे चलाए गए थे, वह यह थे: 1. भड़काऊ पुस्तकें लिखना। 2. सरकार के ख़िलाफ़ युद्ध। 3. दूसरों के लिए शस्त्र मुहैय्या करना।
जुलाई 1911 में अंडमान द्वीप में बंद कर दिया गया, वहां उनको विभिन्न प्रकार के अत्याचारों और विपरीत परिस्थितियों को सहन करना पड़ा। अंत के दिनों में अंग्रेज़ी सरकार से, गुप्त समझौतों के बाद सज़ा की निर्धारित अवधि से पहले 6 जनवरी 1924 को रिहा कर दिया गया और हिंदू मुस्लिम घृणा और भेदभाव के कट्टरपंथ की राजनीति के प्रतिनिधि बनकर सामने गए। यहां तक कि 1966 में मृत्यु हो गई।




सावरकर की पुस्तकें और लेख-
1905-6 से 1911-13 तक सावरकर ने जो कुछ लिखा है उसमें वो सभी भारतीयों के विचार और कार्यों की संयुक्त भावना की व्याख्या करते नज़र आते हैं। इसका सबसे प्रमुख और अच्छा उदाहरण "1857 की जंग-- आज़ादी" नामक पुस्तक है स्वतंत्रता आंदोलन के संबंध में अन्य पुस्तकों और लेखों और व्यक्तित्वों के जीवन से वे सन्देश और मार्गदर्शन लेते और देते नज़र आते हैं।
1."1857 की जंग-- आज़ादी" शायद पहली पुस्तक है  जिसमें हिंदू मुस्लिम एकता और देश की आज़ादी के जज़्बे का वर्णन करते हुए पूरी ताक़त से 1857 की क्रांति और संघर्ष को ग़दर के बजाय स्वतन्त्रता आंदोलन साबित किया गया है।
 2.*हिंदुत्व*, यह सावरकर की सबसे ख्याति प्राप्त और सिद्धान्तों का निर्माण करने वाली पुस्तक है, इस पुस्तक से बाद के लगभग सभी हिंदू पुनरुद्धार वाहकों ने लाभ उठाया है। सावरकर ने हिंदुत्व की, परिभाषा और सीमा बनाई है। इसके हिंदी अंग्रेजी एडिशन में पूरी शक्ति के साथ, बाद के दिनों में संघ परिवार ने इस सिद्धांत से इंकार किया है कि भारत में रहने वाले धार्मिक इकाई के लोग और निवासी हिंदू वर्ग में आते हैं, वह मोहम्मदी हिंदू शब्द को निरस्त करते हैं। सावरकर हिंदू शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि हिंदू वह है, जो सिंधु नदी से समुद्र तक पूरे भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है और भारत प्राचीन काल में एक हिंदू राष्ट्र रहा है। 
3.हिंदुत्व का (पंच) पुराण
4. हिंदू राष्ट्र दर्शन
5. हिंदू पद पादशाही
6. भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ
7. नेपाली आंदोलन
   इन पुस्तकों में सावरकर ने हिंदुत्व के सिद्धांत इतिहास हिंदू राष्ट्र आंदोलनों और अपने आदर्श व्यक्तित्वों के हवाले से विस्तृत चर्चा बातचीत की है।
   इसके नीचे एक महत्वपूर्ण पुस्तक 8. "हिस्ट्री ऑफ सिक्खस" *सिक्खों का इतिहास*  है। यह 1910 में पेरिस में मराठी में लिखी गई थी, इसे छपने से पहले ही ज़ब्त कर लिया गया था, बाद में छपी लेकिन फिलहाल प्रिंट से बाहर है। 10 वॉल्यूम पर आधारित मोटी *कुल्लियात सावरकर* में भी सम्मिलित नहीं किया गया है। हालांकि इसकी बहुत सी बातें सावरकर के विभिन्न लेखों और पुस्तकों में मिलती हैं।

9.गांधी गड़बड़ यह मराठी हिंदी में गांधी जी के विचार एवं कार्यों पर आक्रामक आलोचना लेख पर आधारित है, यह गांधी गोंधल के नाम से भी ख्याति प्राप्त है। 
गांधी विध निवेदन, भी सावरकर ने लिखी है।

सावरकर के धार्मिक सामाजिक सिद्धांत एवं कार्य

1.      युद्ध में नैतिक मूल्य और दूसरों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करने पर सावरकर ने शिवाजी और अन्य मराठी राजाओं पर भी आलोचना की है ( किताबें हैं: हिंदुत्व, भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ, हिंदू राष्ट्र दर्शन और हिंदू पद पादशाही ). वो कहते हैं कि मराठे को मुसलमानों और मुसलमान धर्म का सफ़ाया कर देना चाहिए था और भारत को मुसलमानों से पाक कर देते तो हिंदू और हिंदू धर्म की रक्षा का सामान हो जाता। 
2.      जहां सावरकर ने पुष्यमित्र के द्वारा बुद्धों के नरसंहार और अशोक, मौर्य साम्राज्य के अंत की प्रशंसा करते दिखाई देते हैं,( साक्ष्य और प्रमाण: किताब दूसरा जर्रीन दौर , पेज 84 से 90)

3.       वहीं दूसरी ओर सावरकर ने शिवाजी और चीमा पाप्रास पर इसलिए टिप्पणी की है कि कल्यान के मुस्लिम गवर्नर की बहू और बेसन के पुर्तगाली गवर्नर की पत्नी को सम्मान के साथ वापस भेज दिया। अन्य मामलों में भी सावरकर ने इसी कट्टरता और सांप्रदायिक पक्षपात नफ़रत पर आधारित विचारों को व्यक्त किया है। स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि अहिंसा की प्रचार करने वाले अज्ञानी हैं या शत्रु, अहिंसा की बात केवल कमज़ोर और बुज़दिलों के मुंह से अच्छी लगती है हमारे आदर्श एवं मार्गदर्शन का स्रोत श्रीराम और भगवान कृष्ण हैं, वह हम सब से कहते हैं कि हथियार लेकर शत्रुओं का नस्ली सफ़ाया कर दो, आक्रमण करने वालों को बिना सोचे समझे मार डालो, यह हमारे वेदों के निर्देश हैं, यही हमारा धर्म है। हमारे पूर्वज, सभी देवी-देवता, अवतार, राजा, महाराजा सभी हथियारबंद थे। बड़े बड़े भयानक हथियारों से हथियारबंद थे। यह लेख 1954 के केसरी के गणतंत्र दिवस नवंबर में प्रकाशित हुई थी, अब दिल्ली से प्रकाशित "सावरकर की बातों विचारों" में शामिल है.
4.        सावरकर अपने पूर्वजों पर इसलिए टिप्पणी करते हैं कि दयालुता और भावनात्मक नीति ने इस्लामी हमलों को खुला अवसर प्रदान किया। सांप को दूध पिलाने के जज़्बे, भोले एहसास, आत्महत्या, तथा महान धर्म की सुरक्षा में असफल नीति से अधर्मियों का सामना किया गया। भेड़िया से लड़ने के लिए भेड़ बकरी ने स्वयं अपनी गर्दन आगे रख दी, इसका हानिकारक परिणाम सबको भुगतना पड़ा।
( प्रमाण किताब:- भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ, तीसरा दौर )

5.        सावरकर बुद्ध मत वालों को देश का ग़द्दार, देशद्रोही घोषित करते हुए कहते हैं कि उन्होंने विदेशी हमलावरों का साथ दिया
( प्रमाण किताब:- मज़कूरह किताब का तीसरा बाब)

6.      जबकि जात पात व्यवस्था को बढ़ावा देने वाले बौद्ध विरोधी, चारों धाम बद्री, केदार, द्वारिका रामेश्वर, जगन्नाथ को पवित्र स्थान कहते हैं। 1938 में हिंदू महासभा का वार्षिकोत्सव किया गया।(6. साक्ष्य और प्रमाण, किताब : सावरकर अफ़कार, पेज 58)

7.        इस्लाम और मुसलमानों के संबंध में सावरकर का बहुत ही सख़्त रवैया है।
 वंदे मातरम् के सिलसिले में वो मुसलमानों को समझने और धार्मिक स्वतंत्रता को नज़रअंदाज़ करके कहते हैं कि वंदे मातरम् की जयकार से मुसलमानों के कानों के पर्दे फट जाते हैं, माता की जयकार की आवाज़ उन्हें भाती नहीं है। बेचारे एकता के भूखे हिंदू अपने पवित्र गीत के टुकड़े टुकड़े करने को तैयार हो गए हैं। अगर पूरा भी बंद कर दोगे तो भी वंदे मातरम् सभी मुसलमानों के लिए आपत्तिजनक है। चाहे रविंद्र नाथ टैगोर गीत लिख दें। वो राष्ट्रगीत को मानेंगे नहीं कि वह हिंदू का लिखा हुआ है।
( साक्ष्य और प्रमाण, किताब : वीरवाणी 31, सावरकर अफ़कार, पेज 108)

8.      अपनी प्रसिद्ध ख्याति प्राप्त पुस्तक हिंदुत्व में लिखते हैं कि हिंदू से जो ज़बरदस्ती मुसलमान बना लिए गए हैं उन्हें यह याद नहीं आता कि उनकी रगों में हिंदू रक्त ही दौड़ रहा है। अगर हिंदुस्तान के मुसलमान बेख़बरी पर आधारित अपनी ग़लत शिक्षा संस्कार को छोड़ दें तो इस देश को अपने पितृभूमि के रूप में स्वीकार करते हुए हमारी तरह ही अक़ीदत को व्यक्त कर सकते हैं।
( साक्ष्य और प्रमाण, किताब:- हिन्दुत्व, पेज 86)

9.      जहाँ हिंदुस्तान के अल्पसंख्यकों, मुसलमानों और ईसाइयों आदि के संबंध में वह विभिन्न प्रकार के प्रश्न उठा कर देश से वफ़ादारी पर संदेह का मार्ग साफ़ करते हैं, वहीं दूसरी ओर हिंदू बहुसंख्यक समाज को हिंसा और कट्टरता पर उभारते भी हैं। एक बार 1940 में मदुरई में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के महासम्मेलन में भारी जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि हिंदुओं को अहिंसा, चरख़ा सत्याग्रह के फ़रेब से निकलना चाहिए। पूर्णरूपेण अहिंसा की नीति आत्महत्या के नीति है और एक बड़ा भारी पाप भी( मोहन दास निमेष राय की किताब :- भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास जिल्द 2)
10.  रामलीला मैदान दिल्ली में 5 मई 1957 में आयोजित समारोह में  सावरकर ने कहा था हमारे सामने बुद्ध नीति और युद्ध नीति है। हम बुद्ध की आत्मघाती नीति के बजाय विजय प्रदान करने वाली युद्ध नीति को अपनाएंगे इससे सावरकर की साम्प्रदायिक हिंदू मानसिकता पूरी तरह सामने जाता है कि उन्होंने अपने वसीयत नामे में लिखा है कि हमारी आख़िरी रस्म की राशि बचाकर हिंदू धार्मिक संगठनों को दान में दी जाए, और व्यक्तिगत खाते में से 5000 रुपये शुद्धि आंदोलन के लिए समर्पित करता हूं, हिंदुओं को शुद्धि आंदोलन पाबंदी से जारी रखना चाहिए( मोहन दास निमेष राय की किताब :- भारतीय दलित आंदोलन का इतिहास, पेज 61 से 62 )
सावरकर और ईसाइयत
सावरकर हिंदुस्तान में ईसाइयत को एक बड़े संकट के रूप में देखते हैं। भारत में ईसाइयों ने पूरी तरह अपना जाल फैला दिया है। इस हालत में हिंदू महासभा, आरएसएस, आर्य समाज आदि हिंदू हित वाले संगठनों को योजना बनाकर धर्म परिवर्तन की हानिकारक योजना और कार्यक्रमों का मुक़ाबला करना चाहिए। अगर इस ख़तरे पर हिंदू समाज ध्यान नहीं देगा तो धर्म परिवर्तन के बाद राष्ट्र परिवर्तन का हानिकारक खेल आरंभ हो जाएगा, ईसाइयों की आबादी बढ़ती गई तो भारत में ईसाइस्तान के अस्तित्व का ख़तरा पैदा हो जाएगा इसलिए हिंदुओं को चाहिए कि इस संकट का मुक़ाबला करने के लिए तैयार हों, केसरी का वीर सावरकर अमृत मीनू विशेष नंबर।
( साक्ष्य और प्रमाण: सावरकर अफ़कार ख़यालात, पेज 47)

ईसाइयों के संबंध से सावरकर ने विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग प्रकार से लिखा है। विशेष तौर से धर्म परिवर्तन के मामले के संदर्भ में, शुद्धि आंदोलन के तहत, इस मामले में सावरकर भी अन्य हिंदूवादी पुनरुद्धारों की तरह वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटा कर बहुसंख्यक समाज में डर और नफ़रत पैदा करने की कोशिश करते हैं। डर और नफ़रत का माहौल बनाकर लोगों को अपने साथ करना और रखना सरल होता है। डॉ विपिन चंद्र, मृदुला मुखर्जी ने लिखा है कि सावरकर ने 1938 में कहा था कि हिंदू पूरे देश में ग़ुलाम की हद तक पहुंचा दिए गए हैं, वह हिंदुओं को बाख़बर करते हैं कि मुसलमान हिंदुओं को प्रजा बनाना चाहते हैं( साक्ष्य और प्रमाण:  हुसूल आज़ादी के लिए हिन्दुस्तान की जद्दोजहद, पेज 509, मुद्रक क़ौमी काउंसिल दिल्ली, इशाअत अव्वल 2014 )
ख़ौफ़ की इसी राजनीति से ईसाइयों के संबंध में भी काम लिया गया है, वह बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि धर्म परिवर्तन से राष्ट्र (देशीयता और राष्ट्रीयता) भी परिवर्तित हो जाता है हिंदू का धर्म परिवर्तन करने के साथ-साथ उसकी राष्ट्रीयता के प्रति सिद्धांत विश्वास को भी परिवर्तित करा दिया जाता है। धर्म परिवर्तन होते ही उसकी पृष्ठभूमि को भी बदल दिया जाता है। ( साक्ष्य और प्रमाण: सावरकर अफ़कार ख़यालात, पेज 116 )

सावरकर और सिक्ख
सावरकर ने सिक्ख ग्रंथी से अपनी बातचीत का वर्णन किया, जो कहते थे कि सिक्ख हिंदू नहीं है और किसी ब्राह्मण को मारने में कोई पाप (गुनाह) नहीं है क्योंकि गुरु गोविंद सिंह के बेटों के साथ एक ब्राह्मण बावर्ची ने ही धोखा किया था। इसका उत्तर देते हुए सावरकर कहते हैं कि इतिहास गवाह है कि शिवाजी महाराज के, उनके अपने ही लोगों ने उनके पोते शाह जी के साथ पिसाल जैसे हिंदुओं ने ही ग़द्दारी और धोखा किया था, लेकिन क्या ऐसा होने से शिवाजी ने अपनी क़ौम और हिंदुत्व को छोड़ दिया था? बन्दा वैरागी के साथ कई सिक्खों ने ही ग़द्दारी की। खालसा की अंग्रेजों के साथ जो अंतिम जंग हुई थी, उसमें कई सिक्ख ही धोखेबाज़ साबित हुए क्या उस कारण से सभी सिक्खों को दोषी ठहराया जा सकता है।( साक्ष्य और प्रमाण, किताब:- हिन्दुत्व, पेज 124


विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग
 द्वितीय विश्व युद्ध के अवसर पर ब्रिटिश सरकार से सहयोग और असहयोग के मामले में सावरकर, हिंदू महासभा ने कांग्रेस और गांधी जी से अलग मार्ग अपनाया। गांधी जी जहाँ असहयोग के पक्ष में थे तो मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा सरकार से युद्ध में सहयोग के पक्ष में थे उनका विचार था कि हिंदू युवाओं की फ़ौज में भर्ती से रोज़गार मुहैया होने के अतिरिक्त युद्ध के अनुभव भी प्राप्त होंगे। हिंदू महासभा और सावरकर का समर्थन करते हुए प्रोफ़ेसर भावे ने गांधी जी के स्टैंड को समझदारी के विपरीत बताया है।
( साक्ष्य और प्रमाण:-  विनायक दामोदर सावरकर, पेज 76 )
सावरकर की नीति ब्रिटिश सरकार के उद्देश्य के अनुरूप थी।

क्विट इंडिया (भारत छोड़ो आन्दोलन) का विरोध
हिंदू महासभा और सावरकर के जीवन पर आधारित लेखों में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का जबर्दस्त विरोध मिलता है और उसको विभिन्न तरीकों से वैध ठहराने का भरपूर प्रयास किया है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के सिलसिले में जब कांग्रेस के लगभग सभी योग्य नेता जेल में थे तो सावरकर ने कहा कि जो होना था वही हुआ।
( साक्ष्य और प्रमाण:-   हिस्टोरिकल स्टेट मिन्ट्स, पेज  77 )

हिंदू महासभा और लीग की राष्ट्रवाद की अवधारणा में एकरूपता
 1942 से 1942 के बीच कांग्रेस और उसके नेता जेलों में थे और जो बाहर थे वो अधिक प्रभावशाली नहीं हो रहे थे। ऐसी स्थिति में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को खुलकर अपने एजेंडे के अनुसार काम करने का अवसर मिला हिंदू महासभा मुस्लिम लीग की तरह हिंदू समुदाय को सामने रखकर हिंदू राष्ट्र की स्थापना और बढ़ावे के लिए संघर्ष कर रही थी। दोनों में यह एकरूपता थी कि देश में हिंदू मुस्लिम दो समुदाय रहते हैं। वहीं एक मूलभूत अंतर भी था, वह यह कि हिंदू महासभा भारत विभाजन के विरुद्ध थी, उसका नारा "एक राष्ट्र - एक राज्य" था। हालांकि यह भी सच है कि हिंदू महासभा के नारे और गतिविधि से मुस्लिम लीग के नारे और एक अलग देश बनाने के संघर्ष का संकल्प मिला और सभा के 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' से लीग ने लाभान्वन करते और मार्गदर्शन लेते हुए अपने अपने एजेंडे को आगे बढ़ाया। यह बात दोनों के रिकार्ड पर मौजूद है। आखिल भारतीय हिंदू महासभा ने 1937 के 19 वें अहमदाबाद सम्मेलन में 'द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया था। विनायक दामोदर सावरकर ने अध्यक्षीय सम्बोधन में कहा कि भारत में दो विपरीत राष्ट्र रहते हैं। हिन्दू और मुसलमान।
(साक्ष्य और प्रमाण, सावरकर की किताब :- हिंदू राष्ट्र दर्शन, मुद्रक प्रभात प्रकाशन दिल्ली, 2014 Edition)

बाद के दिनों 1940 ईस्वी में मोहम्मद अली जिन्ना ने संकल्प पत्र लाहौर के संदर्भ में सावरकर का विशेष तौर से वर्णन किया, उसके उत्तर में सावरकर ने धन्यवाद कहने में कंजूसी से काम नहीं लिया 15 अगस्त 1943 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा कि जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत को लेकर कोई झगड़ा नहीं है। हम हिंदू अपने आप में एक राष्ट्र हैं। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं।
( साक्ष्य और प्रमाण:- डॉक्टर शमशुल इस्लाम की किताब, सावरकर मिथक और सच, पेज 84, first Edition,2006 )
( साक्ष्य और प्रमाण:-   एस भड़े की किताब :- इंडियन, मैनुअल रजिस्टर 1943, जिल्द 2, पेज 10 )

डॉ भीमराव अंबेडकर ने सख़्त आलोचना टिप्पणी करते हुए लिखा है कि सावरकर की सांप्रदायिक योजना भारत की सुरक्षा के लिए अत्यंत विनाशकारी स्थिति पैदा कर रही है
( साक्ष्य और प्रमाण:- Pakistan On Partition Of India, पेज 142, मुम्बई मुद्रक 1946, हिंदी अनुवाद सम्यक प्रकाशन, Edition 2014 )


फिलिस्तीन मामले में इसराइल का समर्थन
 चाहे जिस प्रकार का मामला हो, जिनसे किसी किसी तरह इस्लाम या मुस्लिम नाम जुड़ा होता है, उनके सिलसिले में आमतौर पर सावरकर का स्टैंड अलग-अलग और टकराव वाला होता था। इसका एक उदाहरण इसराइल/फिलिस्तीन मामले में पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों के इच्छानुसार इसराइल का समर्थन है। आज की तारीख में इसराइल से संबंधित विभिन्न सरकारों, हिंदुत्ववादी संगठनों की नीतियों की समीक्षा करते हैं तो वह सावरकर के स्टैंड से प्रभावित अनुरुप दिखाई देती हैं। जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने फिलिस्तीन में एक इसराइल देश बनाने की रज़ामंदी दे दी है तो उन्होंने इसका स्वागत किया कहा कि मुझे प्रसन्नता है कि अधिकांश विकसित देशों ने फिलिस्तीन में यह यहूदियों के देश की स्थापना के दावे को मान लिया है। ( साक्ष्य और प्रमाण:- हिस्टोरिकल स्टेट मिन्ट्स, पेज 220 )

सावरकर ने इस बात पर दुख प्रकट किया है कि भारत सरकार ने बात को यह कह कर नामंजूर कर दिया है कि ऐसा करने से फिलिस्तीन राज्य की एकता और दृढ़ता से खिलवाड़ होगा उन्होंने विशेषतः पंडित जवाहरलाल नेहरु के उस बयान का विरोध किया था, जिसमें कहा गया था कि इस क़दम का विरोध करके भारत सरकार एशिया के छोटे-छोटे मुस्लिम देशों की मोहब्बत हमदर्दी प्राप्त करना चाहती थी। सावरकरवादी आज भी इसराइल सरकार का समर्थन इस नाम पर करते हैं कि उसकी दोस्ती से रक्षा और वैज्ञानिक जानकारी में विभिन्न प्रकार के लाभ होते हैं।
( साक्ष्य और प्रमाण:-  विनायक दामोदर सावरकर, पेज 86)

सावरकर और शुद्धि आंदोलन
सावरकर के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय शुद्धि आंदोलन में शामिल होना है। सावरकर ने जेल के अंदर और उससे बाहर आकर अंग्रेजों के मानचित्र के अनुसार हिंदू मुस्लिम के बीच दूरी और हिंदू सांप्रदायिकता को बढ़ाने के लिए जो काम आरंभ किया वह शुद्धि आंदोलन ( इसे संघ के दायरे में घर वापसी का नाम दिया गया है ) का पुनः आरम्भ था। भारत में मनुवादियों का एक ऐसा वर्ग सदैव रहा है, जिसके लोग विभिन्न कारणों से दूसरों के विश्वास और कार्यों को अपनाने के विरुद्ध रहे हैं। उन्होंने अपनी वैचारिक व्यावहारिक कमियों को दूर करने के बजाए भावनात्मक रुप से और  हिंसात्मक रूप से इस्लाम या दूसरे धर्म को अपनाने वालो को अपने विश्वास के अनुसार शुद्धि करने और घर वापसी का प्रयास किया है। वह कुछ लोगों के व्यक्तिगत कार्य को पूरे समुदाय और धार्मिक लोगों के कार्यों से जोड़ कर देखते हुए पूरी शक्ति से मुसलमान और ईसाई को हिंदू समाज में शामिल करने के आंदोलन में लग जाते हैं अंडमान से रत्नागिरी में आने के साथ ही सावरकर में एक विचित्र प्रकार की सांप्रदायिक मानसिकता परवान चढ़ती है। यहां आकर जहां उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद , राष्ट्रवाद, देशवाद पर आधारित लेखों के लिखने और साहित्यलेखन का सिलसिला आरंभ किया। अपने छोटे भाई नारायण सावरकर को श्रद्धानंद और हत्मात्मा नाम की साप्ताहिक पत्रिका जारी कराने पर उभारा और उनमें फ़र्ज़ी नामों से लेख छपवाने के लिए दिए।

गांधी जी का हवाला
गांधीजी ऐसी बातों को अच्छी तरह जानते थे। इसलिए शुद्धि और घर वापसी आदि अभियान की विरोधी थे। उनका बल इस बात पर रहता था कि सभी धर्म का एक जैसा सम्मान हो और एक दृष्टि से देखा जाए। वो जानते थे यदि धर्मों के बीच वरीयताओं का मुद्दा सामने आएगा तो हिंदू धर्म हमारे सामने आज जिस रूप में और वर्ण आश्रम प्रणाली पर आधारित है, उससे सम्बन्धित कई तरह से मामले और आशंकाएं आएंगी। इसके मद्देनज़र गांधीजी ने आर्य समाजियों के अतिरिक्त सावरकर को इस ओर ध्यान दिलाया कि वो शुद्धि आंदोलन और घर वापसी अभियान को बन्द कर दें इसका विवरण गांधीवादी और हिन्दुत्ववादी दोनों ओर के लिट्रेचर में मौजूद है। 

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:-अफ्फान नोमानी मेरे पास डेक्कन इतिहास से जुड़े तीन किताबें हैं.  1. History of the Deccan, Author:- J.D.B. Gribble. 2. A Guide To The Heritage Of Hyderabad: The Natural and the Built, Author:- Madhu Vottery. 3. The Deodis of Hyderabad- a lost heritage, Author:- Rani Sharma.     डेक्कन इतिहास की ये क़िताब दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा प्रमाणिक मानी जाती  हैं. भाग्य लक्ष्मी मंदिर नाम का कोई मंदिर इस इतिहास की क़िताब में मौजूद ही नहीं हैं. योगी आदित्यनाथ ने जिस मंदिर के नाम पर हैदराबाद का नाम बदलकर भाग्यनगर की बात की हैं वो मंदिर भाग्य लक्ष्मी मंदिर ही हैं जो अभी वर्त्तमान में चारमीनार के पूर्व में एक मीनार के कोने में मौजूद हैं. आज तेलंगाना बीजेपी के नेता जो भाग्यनगर की बात कर रहे है वो इस मंदिर के नाम पर ही कर रहे हैं  न की नवाब मुहम्मद कुली क़ुतुब शाह की पत्नी भाग्यवती के नाम पर. कुछ मीडिया संस्थानों ने नवाब मुहम्मद कुली क़ुतुब शाह की पत्नी भाग्यवती से ही जोड़कर स्टोरी तैयार किया जिसे लोगो ने बहुत शेयर किया. उर्दू नाम वाले कुछ लोगो ने अपनी दादी मानकर ख़ुशी में शेयर कि...

गांधी के हत्यारे व तिरंगे को पैरों तले रौंदने वालों के वंशज मदरसों से देशभक्ति होने के सबूत मांग रहे :- अफ्फान नोमानी

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा  मदरसों में स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में होने वाले कार्यक्रमों की वीडियोग्राफी कराने के निर्देश जारी करना सरकार की तरफ से यह  पहला मौका जरूर है लेकिन आरएसएस व आरएसएस द्वारा समर्थित हिन्दू संगठनों द्वारा इस तरह के सवालात कई बार उठाया गया है जो कोई नई बात नहीं है लेकिन सबसे बड़ी दुर्भाग्य की बात तो यह है कि आज की तारीख में  भारतीय मुसलमानों व मदरसों की देशभक्ति  पर वही लोग सवाल उठा रहे हैं  जिनके पूर्वजों व संगठनों का भारत छोड़ो आंदोलन  व आजादी  की लड़ाई में कोई अहम भूमिका नहीं रहा है। ये वही लोग थे जिन्होंने 1948 में तिरंगा को पैरों तले रौंद दिया था।  स्वतंत्रता दिवस के मौके पर ख़ुशी का इज़हार  करते हुवे  अंजुमन इस्लाम कॉलेज की छात्राएं सिर्फ दो किताबें:-  पहला आरएसएस के दुसरे सरसंघचालक एम एस गोलवालकर की किताब " बंच ऑफ़ थॉट्स " आज़ादी के अठारह साल बाद 1966 में प्रकाशित हुवी , बाद के एडिशन में भी वही बाते है जो मेरे पास जनवरी 2011 का ताजा  एडिशन मौजूद है और दुसरा वर्तमान में 2017 में प्रका...