सावरकर में एक विशेष बात यह थी कि वो हिंदुत्व, हिंदू समाज और हिंदू राष्ट्र के संबंध में विभिन्न प्रकार से विचार करते और उसको कभी कभी व्यक्त भी करते थे, वह हिंदू बहुसंख्यक समाज की जहां स्वीकार्य और उचित छवि बनाकर प्रस्तुत करते थे, वहीं जिस मामले में लगता था कि उससे हिंदू पदपादशाही और हिंदू राष्ट्र की आधारशिला कमज़ोर हो सकती है तो सावरकर उसके सुधार या समाप्त करने का प्रयास करते थे, जैसा कि हिंदू समाज में प्रचलित छुआछूत और धर्म शास्त्रों और स्मृतियों में समयानुसार उचित संशोधन व परिवर्तन और सुधार की वकालत व समर्थन की बात है। उन्होंने यह भी विश्वास दिलाने का प्रयास किया है या वह यह समझते और महसूस करते थे कि धार्मिक पवित्रता या कुतर्कसंगत बातों की विज्ञान व तर्कशास्त्र पर प्राथमिकता से हमारी छवि खराब होगी। सावरकर का मानना है कि हमारा सामना विज्ञान से है। अब जो जो परंपरागत तरीके और शास्त्र विज्ञान के गुणों और जांच परख पर सोलह आने ठीक ठीक उतर सकेंगे, वही आज के समय का हमारा हिंदू धर्म है, जो हल्का कम टिकाऊ है उसे जला कर भस्म कर दो। सौभाग्यवश अपने हिंदू, हिंदू राष्ट्र निर्माण शक्ति पर उभरती दिखाई दे रही है। हम हिंदू रह कर जिएंगे, जब मरना होगा तब या तो सिपाही की तरह रहेंगे या गुरु गोविंद सिंह की तरह, लेकिन बुज़दिल की तरह हिंदू से गैर-हिंदू होकर कदापि नहीं।
( साक्ष्य और प्रमाण:- सावरकर अक़वाल व अफ़कार, पृष्ठ 110 )
इसी ज्ञान और तर्कशास्त्री विचारधारा के प्रभावाधीन सावरकर उत्तर भारत के आम हिंदू के आम रुझान गाय की पवित्रता और पूजा के समर्थक नहीं है, लेकिन इस सिलसिले में अधिकांश जीवनी लेखकों और सावरकर की विचारधाराओं और विचारों का प्रसार करने वालों ने ध्यान न देने और नज़रअंदाज़ करके अपनी पसंद को सामने रखा है।
उल्लेखित पुस्तक ( सावरकर अक़वाल व अफ़कार, मुद्रक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, इशाअत अव्वल 2017 )
में विभिन्न मसलों के संबंध से सावरकर की कथनियों और टिप्पणियों को इकट्ठा किया गया है, लेकिन गाय के संबंध से सावरकर की विचारधारा को पेश नहीं किया है। इसी प्रकाशन संस्थान ने दस मोटी जिल्दों में सावरकर संग्रह को भी प्रकाशित किया है, मगर उसमें भी खोजने के बावजूद इस संबंध से कोई स्पष्ट बात नहीं मिली संभव है आगे की और जिल्दें संग्रह की सामान्य पटल पर आएं। सावरकर के लेखों का एक बड़ा ज़ख़ीरा केवल मराठी में हैं, अन्य हिंदी, अंग्रेज़ी, बंगला और गुजराती आदि में वह परिवर्तित नहीं हुआ है। जब पिछले दिनों गाय को लेकर देश के विभिन्न भागों में हत्या, दंगे और हंगामे का सिलसिला आरंभ हुआ तो कुछ लोगों ने (विवेकानंद और) सावरकर के संबंध से एक खुलासा किया कि वो आम हिंदू समाज के रुझान के विपरीत स्टैंड रखते हैं। एनसीपी लीडर शरद पवार के भाषण के बाद देश के नागरिकों का केंद्र, सावरकर की विचारधाराओं को ओर हुआ। तहक़ीक़ के बाद पता चला कि गाय के संबंध से सावरकर ने संबंधित विचार को मराठी भाषा के अपने एक लेख में प्रस्तुत किया है। उनके मराठी निबंध का एक संग्रह उपस्थित है, इस संबंध से पिछले दिनों अंग्रेज़ी, हिंदी और उर्दू समाचार पत्रों में बड़ी बहस हो चुकी है, लेखक को अध्ययन के दौरान सावरकर की कई ऐसी प्रामाणिक जीवनी तक पहुंच हुई, जिनमें गाय के संबंध से सावरकर की विचारधारा को लिखा गया है, और यह सावरकर के मराठी भाषा के लेख पर ही आधारित है। आधुनिक भारत का राजनीतिक चिंतन, एक विमर्श के शोधकर्ताओं में शामिल डॉक्टर अजय कुमार ने सावरकर का विश्लेषण करते हुए लिखा है यह ठीक है कि सावरकर ने धर्म और राजनीति को एक ही जुए के नीचे रखा, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि वो वैज्ञानिक विचार रखते थे। उन्होंने इसके उदाहरण में गौहत्या के मसले को पेश किया है, मामले की पृष्ठभूमि यह है कि 1883 में गौहत्या को लेकर होने वाले दंगों के बाद इसके लिए निषेध कानून बनाने का मसला पेश आया और इसके संबंध में मांग होने लगी तो तिलक के साथ सावरकर ने भी गाय सुरक्षा के लिए आंदोलन चलाया। लेकिन सावरकर का दृष्टिकोण अन्य लोगों से अलग था। उन्होंने दलील दी थी के भारत में गाय की पूजा करने से अधिक उसकी सुरक्षा की आवश्यकता है। सावरकर का मानना है कि गाय एक उपयोगी पशु है। उन्होंने व्यावहारिक और तार्किक आधार पर कहा कि गाय न तो भगवान है और न ही मां, हां गाय लाभकारी और उपयोगी पशु है हमें इसकी पूजा नहीं करनी चाहिए। लेकिन नस्ल को बचाना और पालन पोषण करना चाहिए हम इससे बहुत से लाभ उठा सकते हैं।"
आगे सावरकर बहुत बल देकर यह भी कहते हैं कि "भारत जैसे देश में जहां इसका विकास कृषि पर निर्भर है, इसमें गाय की भूमिका महत्वपूर्ण है और यह हिंदुस्तानी समाज के आर्थिक विकास के लिए लाभकारी है। गाय धन का अधिक प्रयोग भारत में विकास का आधार बनेगा और उसके लिए हिंदू विचारधारा को वैज्ञानिक विचारधारा से परिवर्तित करना पड़ेगा। गाय के प्रति धार्मिक आस्था विश्वास रखने से बेहतर है इसे आर्थिक विकास की कुंजी समझा जाए।" गाय के संबंध में बहुसंख्यक समाज की सामान्य अवधारणाओं के विपरीत सावरकर की यह विचारधारा बिल्कुल क्रांतिकारी मालूम होती है। डॉ अजय कुमार ने इस मामले में सावरकर को हिंदू समाज का पहला इंसान कहा है। सावरकर ने इससे आगे बढ़कर बहुसंख्यक समाज में होने वाली परंपरा गाय पूजा के सिलसिले में अपने समाज को ध्यान दिलाया है कि "वह इसे छोड़ दें"। गाय पूजा त्याग देने का समर्थन करते हुए यहाँ तक कहा है कि
"भोजन में गाय के मांस के फ़ायदेमंद होने का भी समर्थन किया है। उनका मानना है कि देश के निवासी भोजन संकट और असंतुलन, पोषण की कमी पूरी करने के लिए मांस का प्रयोग कर सकते हैं जिसमें गाय का मांस भी सम्मिलित है।
(देखें मज़कूरह किताब का पृष्ठ 353 से 354)
इस पर टिप्पणी करते हुए डॉ अजय कुमार लिखते हैं कि इससे सिद्ध हो जाता है कि सावरकर परंपरागत हिंदूवाद के पक्ष में न होकर , हिन्दुत्व अर्थात हिंदू गौरव और गरिमा के कारण एक वैज्ञानिक राष्ट्रवाद के पक्ष में थे" यह तो टिप्पणी है, जिस पर चर्चा की गुंजाइश है, गाय के संबंध सावरकर ने जिस मानसिकता को व्यक्त और व्यावहारिक पहलू को प्रस्तुत किया है, वह वास्तव में क्रांतिकारी है।
गाय से संबंधित सावरकर की विचारधारा को सेग फ्रिडोल्फ़ ने हेडबर्ग यूनिवर्सिटी से
2010 में प्रकाशित किताब में विस्तार से वर्णन किया है। (Wolf Siegfried
O. (2010) : Vinayak Damodar Sawarkar's 'Strategic Agnosticism' : A Compilation
of his Socio-Political Philosophy And Worldview, Working Paper No. 51, South
Asia Institute, Heidelberg University.)
यह अच्छी बात है कि सावरकर की विचारधारा व विचार को समर्थक दो महत्वपूर्ण जीवनी लेखकों ने उनकी वैज्ञानिक विचारधारा को साबित करने के लिए गाय के सिलसिले में सावरकर के दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है, वरना संघ और हिंदू महासभा से जुड़े लोग सामान्यतः इससे छुपा के रखना चाहते हैं, वह दो महत्वपूर्ण जीवनी लेखक हैं, अशोक कौशिक और राघवेंद्र तनोर।
कौशिक ने
286 पृष्ठों पर आधारित युग पुरुष वीर सावरकर के नाम से सावरकर की जीवनी लिखी है। उन्होंने सावरकर की वैज्ञानिक सोच और सिद्धान्त का वर्णन करते हुए गाय के संबंध से कुछ पंक्तियों में सावरकर के दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है। वह लिखते हैं "सावरकर न पदार्थवादी थे, न ही नास्तिक, वह स्पष्ट कहते थे बलि देने से वर्षा नहीं हो सकती है, वह यह भी मानते थे कि कुछ पशु पक्षी मनुष्य के लाभ और प्रयोग के लिए पैदा किए गए हैं, चाहे वो गाय ही क्यों ना हो, उनके सिद्धांत के अनुसार कोई भी पशु-पक्षी पूजनीय नहीं है।"( देखें मज़कूरह किताब, पृष्ठ 226, मुद्रक सूर्य भारतीय प्रकाशन, इस्लाह शुदा एडिशन, इशाअत 2013 )
जबकि तनोर सावरकर के वैज्ञानिक सिद्धांत के होने के संबंध से उनके लेखों के हवाले से लिखते हैं कि "सावरकर पूरी तरह दलीलों पर आधारित सिद्धांत रखते थे, वह अंधविश्वास से घृणा करते थे और उसको निरस्त भी करते थे और कहा करते थे कि अंधविश्वास ने हमारे लोगों को विज्ञान से दूर रखा है, यह अभिशाप है, सदाचारण का अर्थ, मनुष्य की भलाई के सांचे में ढला होना चाहिए, विज्ञान ने जिसको तबाह कर दिया है,
उसे ज्योतिष विज्ञान नहीं बचा सकता है और जहां ज्ञान के द्वारा सुरक्षा को सुनिश्चित किया गया है ज्योतिष विज्ञान, उसे संकट में नहीं डाल सकता है, विज्ञान की कसौटी पर प्राचीन ग्रंथ को भी जाना चाहिए, स्मृति और वेदों को हम समय साथ अपरिवर्तनीय किताबों की हैसियत से नहीं, बल्कि ऐतिहासिक किताबों और मनुष्य के विकास की शानदार यात्रा के काल के रूप में पसंद करते हैं। वह हिंदुओं से विशेष तौर से यह चाहते थे कि प्राचीन ज्ञान और कानूनों को विज्ञान के कसौटी पर परखना चाहिए, सावरकर के अनुसार कोई पशु पवित्र नहीं होता है, वह गाय की पूजा नहीं बल्कि गाय की सुरक्षा चाहते थे।"( रघवेन्द्र तनोर की किताब :- विनायक दामोदर सावरकर, पृष्ठ 66, मुद्रक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, First Edition,2016)
यह प्रकाशन संगठन संघ के सिद्धांतो से जुड़ा है। सावरकर के सिद्धांतों के प्रकाश में समझा जा सकता है कि गाय से संबंधित मुद्दे को क्या रुख़ दे दिया गया है। इससे संबंधित मुंशी प्रेमचंद ने इस संबंध से विशेष मानसिकता पर विस्तार से प्रकाश डाला है, उनके विशेष अनुभवी शोधकर्ता मानक टाला ने अपनी कई किताबों सांप्रदायिकता के संदर्भ में स्थिति का विश्लेषण किया है, गाय के संबंध से सभी धार्मिक इकाई और कबीलों के आज़ादी के हवाले से यह प्रश्न ध्यान देने वाला होना चाहिए किसके सिलसिले में कहां तक नकारात्मक मानसिकता और सांप्रदायिक राजनीति का हस्तक्षेप है? और सावरकर के विचार और कार्यों को नजरअंदाज करने के कारण के पीछे किस प्रकार की मानसिकता काम कर रही है? भारत के संविधान में गाय और इसकी नस्ल की सुरक्षा को देश के कृषि पहलुओं के तहत रखा गया है जैसा कि सावरकर ने भी इसकी तरफ ओर ध्यान दिलाया है।
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