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मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी |
भारत में हिन्दुत्व और हिंदू राष्ट्र और इनसे संबंधित दर्शन और विचारधाराएं सावरकर ने बहुत विस्तार से प्रस्तुत किया है। सावरकर जहां हिंदुत्व के विचारधारा निर्माणक में से हैं, वहीं राष्ट्र और हिंदू समुदाय के संबंध में भी बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है। वह भारत को प्राचीनकाल से हिंदू राष्ट्र और हिंदू समुदायों को उसका वास्तविक निवासी बताते है। उनके निकट हिंदू होने के कुछ आधार और शर्तें हैं, उनके बिना कोई भी हिंदू समुदाय में शामिल नहीं हो सकता है, इस संबंध से विशेष तरह से हिंदू संस्कृति के अतिरिक्त हिंदू परिवारों और हिंदू (पवित्र) खून का रिश्ता होना आवश्यक है। उनके निकट भारत के हिंदू होने के लिए जन्मभूमि, कर्मभूमि, पितृभूमि होने की अवधारणा के साथ पूण्य भूमि के तौर पर मानना और होना आवश्यक है। इस संबंध से लेखक
( Abdul Hameed Noumani ) ने "हिंदुत्व और राष्ट्रवाद"
में विस्तार से प्रकाश डाला है। हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र, हिंदू राष्ट्र दर्शन और इतिहास को लेकर सावरकर के विभिन्न लेखो में विस्तार से प्रकाश डाला है। हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्रवाद, हिंदू दर्शन, नेपाल (नेपाल आंदोलन) भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ, हिंदू पदपाद शाही के अध्ययन से कई सारे पहलू विस्तार से हमारे समक्ष आ जाते हैं। यद्यपि बहुत से हिंदू राष्ट्रवादियों ने हिंदूवाद, हिंदू राष्ट्र के संबंध में कई सारे मूल्यों को विभिन्न तौर से प्रस्तुत किया है, डॉ अजय कुमार के शब्दों में, सावरकर के द्वारा, हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र को जीवन के सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में सभी रणनीतियों के रूप में सम्पर्कित तौर से जैसे प्रस्तुत किया गया है, वैसा अन्य लोग सामने नहीं ला सके हैं। (आधुनिक भारत का राजनीतिक चिन्तन, एक विमर्श, पृष्ठ 331, संकलक रुचि त्यागी, मुद्रक दिल्ली यूनिवर्सिटी, 2nd Edition,2015 )
कई विश्लेषक हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र दर्शन के सिलसिले में सावरकर की तुलना न्यूटन या साझेदारी दर्शन के मामले में कार्ल मार्क्स से करते हैं। सावरकर अधिकांश बल्कि हर सामाजिक व राजनीतिक मामले कोहिंदुत्व वादी दृष्टिकोण से देखते हैं। यहां तक कि स्वराज जिसे कांग्रेस और गांधीजी जिस रुप में पेश करते थे, उससे सावरकर सहमत नहीं थे। वह कहते थे कि कांग्रेस और गांधीजी स्वराज की जो व्याख्या करते हैं वह फ़रेब और भ्रम पर आधारित है। स्वराज को केवल हिंदुत्व की पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है। सावरकर कहते हैं कि ऐसा स्वराज जो हिंदू जड़ों से कटा हो, उसका वह महत्वहीन नहीं है। हिंदुस्तानी स्वराज का आधार हिंदुत्व होना चाहिए। इससे अलग स्वराज हिंदुओं के लिए आत्महत्या जैसा है। सावरकर इस सिलसिले में तिलक, विपिन चंद्रपाल और अरविंद घोष जैसे कट्टर हिंदुत्ववादियों से भी सहमत नहीं नज़र आते हैं। हम देखते हैं कि बाद के लगभग सभी हिंदू राष्ट्रवादी और अन्य बहुत से अपने पेशवाओं का नाम लेने के बावजूद हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र आदि के मामले में सावरकर ही के अनुयायी दिखाई देते हैं, और इसमें सब ने उन्हीं से लाभ उठाया है।
सावरकर हिंदू पद पादशाही और हिंदू राष्ट्र के मामले में मराठा और मराठी पहलुओं को बहुत ऊंचा करके प्रस्तुत करते हैं। यह कम लोगों को मालूम है कि महाराष्ट्र में हिंदुत्व का आंदोलन वास्तव में दलित आंदोलन के उभार को दबाने के लिए शुरू हुआ था लेकिन इसे बहुत महीन तरीके से मुस्लिम समाज की ओर मोड़ दिया गया, दलित आंदोलन और क़यादत के लिए ब्राह्मण लीडर और ब्राह्मणवादी आंदोलन किसी क़ीमत पर स्वीकार्य नहीं था, न अब है। इसका इलाज हिंदुत्ववादियों,संघ और सावरकरवादियों ने हिन्दुत्व और हिंदू पदपादशाही को सामने लाने में तलाश किया है। सावरकर ने यह जतलाने का प्रयास किया है कि मराठा शैली के शासन में लोकतांत्रिक तत्व सम्मिलित हैं और हिंदू पद पादशाही इसी का रूप है। उन्होंने हिंदुत्व की व्याख्या को अपना मिशन बना लिया था, सावरकर के अनुसार हिंदू मत, हिंदू वाद, हिंदुत्व का केवल एक भाग है। हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र के संदर्भ में सावरकर सदैव भौगोलिक, पीढ़ीगत, सांस्कृतिक तीनों आधारों को दृष्टि में रखते हैं, यह तीनों कसौटी के हैसियत रखते है, इनके साथ वह भाषा संस्कृत को भी मिला देते हैं। उनके अनुसार मुस्लिम और इसाई आदि हिंदुस्तानी राष्ट्रीयता के दायरे से बाहर हैं। सावरकर के निकट राष्ट्रवाद का आधार केवल समुदाय है, नाकि देश, वह केवल हिंदू एकता में विश्वास रखते हैं, उनकी व्याख्या के अनुसार सामाजिक और राजनीतिक एकता राष्ट्रवाद के लिए काफ़ी नहीं है, बल्कि राष्ट्रवाद उसके मूलभूत तत्वों और भागों को शामिल किए बगैर पूर्ण नहीं हो सकता है। सावरकर के हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र की अवधारणा में जर्मन पीढ़ीवाद के कई प्रभाव नज़र आते हैं ऐसा कई विद्वानों ने माना है।
(देखें आधुनिक भारत का राजनीतिक चिन्तन, पृष्ठ 347)
सावरकर ने जेल में ब्लंशिली की किताब थ्योरी ऑफ स्टेट का अध्ययन किया था और साथी कैदियों को भी अध्ययन कराया। ब्लंशिली जर्मन राष्ट्रवाद के प्रतिनिधि थे। क्रिस्टोफर जेफरलो और डॉ अजय कुमार ने लिखा है कि सावरकर और गुरु गोलवलकर कर पर भी ब्लंशिली के लेखों का प्रभाव हुआ। सावरकर ने पश्चिम के नेशनलिस्ट और राष्ट्रवाद पर आधारित लेखों से लाभ उठाया है, उनका हिंदुत्व हिटलर और मैसोलिनी के प्रति सम्मान भाव रखता था। 1940 मदुरई के हिंदू महासभा के वार्षिक सम्मेलन के अध्यक्षीय संबोधन में सावरकर ने कहा था कि "यह मानने की कोई वजह नहीं है कि हिटलर मानव के रूप में राक्षस है क्योंकि वह नाज़ी थे या चर्चिल देवता हैं, क्योंकि वह स्वयं को लोकतंत्रप्रिय कहते हैं जर्मनी जिस स्थिति में घिर गया था उनमें नाज़ीइज्म इसके लिए स्पष्ट तौर से छुटकारा का मार्ग सिद्ध हुआ।
( देखें आधुनिक भारत का राजनीतिक चिन्तन, पृष्ठ 347)
हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र के सिलसिले में सावरकर की जिन किताबों का ऊपर उल्लेख किया गया है उनमें एक महत्त्वपूर्ण किताब हिंदू पद पादशाही है इसमें वह हिंदुओं को मार्गदर्शन देते हैं कि क़यादय की लड़ाई में अपने प्रतिद्वंदी को मात देने के लिए शिवाजी के आदर्श को अपनाना चाहिए, जिन्होंने अपनी संगठन शक्ति से मुग़लों की शक्ति को आगे बढ़ने से रोक दिया था। शिवाजी पहले साहसी थे जिन्होंने मुसलमानों से टक्कर लेने की हिम्मत की, सावरकर का मानना है कि मुसलमान भी युद्ध इसलिए जीत लेते थे कि अपने धर्म को सबसे ऊपर मानते थे। यहां तक कि जंग में विजय प्राप्त करने के लिए अल्लाहु अकबर का नारा लगाते थे, जिसका अर्थ था "अल्लाह हमें विजयी बनाए" और उनका खुदा सुनिश्चित तौर से उन्हें विजय देता था। इसलिए हिंदुओं के स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू पदपादशाही काम आई, उसने स्वतंत्र हिंदू साम्राज्य के निर्माण में मदद की। उस पुस्तक में सावरकर यह भी लिखते हैं कि शिवाजी का हिंदू पदपादशाही कोई व्यक्तिगत आंदोलन नहीं था बल्कि यह एक स्वतंत्र और शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य की स्थापना के लिए मुसलमानों के वर्चस्व को उखाड़ फेंकने के लिए, और हिंदू धर्म की सुरक्षा के लिए एक आवश्यक हिंदू आंदोलन था। सावरकर खुलेआम हिंदूवाद के समर्थक थे, उन्होंने अहमदाबाद के अखिल भारतीय हिंदू महासभा के वार्षिक सम्मेलन में कहा था कि हिंदू महासभा वास्तव में केवल एक हिंदू महासभा नहीं है बल्कि एक पूर्व वर्चस्व हिंदू राष्ट्र भी है और यह संगठन अपने सभी राजनीतिक व सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं में हिंदू राष्ट्र के उद्देश्य का निर्णय करेगी। सावरकर ने नेपाल का उदाहरण देते हुए लिखा है कि "हिंदुओं को पड़ोसी देश नेपाल की तरह हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना होगा, जिसमें हिंदूवादी गोरखाओं का शासन स्थापित है। हिंदू महासभा के हर कार्यक्रम का समापन उसकी नियमावली के अनुसार, हिंदू धर्म की जय, हिंदू महासभा की जय, हिंदुस्तान हिंदुओं का है, के नारे के साथ होता था।"
( देखें इंडियन एनोल रजिस्टर, पृष्ठ 569,
सावरकर मिथक और सच, पृष्ठ 85)
सावरकर ने अपनी किताब हिंदुत्व में मुसलमानों और ईसाई को विदेशी कहकर संबोधन किया है। हिंदू राष्ट्र दर्शन में सावरकर स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि "स्वराज का विशेष हिंदुत्व के बिना कोई अर्थ नहीं है स्वराज का वास्तविक अर्थ केवल भारत नाम की भूमि की भौगोलिक स्वतंत्रता नहीं है, हिंदुओं के लिए हिंदुस्तान की आज़ादी तभी काम की होगी जब उनके हिंदुत्व उनकी धार्मिक, पीढ़ीगत और सांस्कृतिक पहचान निश्चित होगी। हम इस स्वराज के लिए लड़ने मरने के लिए तैयार नहीं हैं जो हमारी स्वतंत्र हमारे हिंदुत्व के मूल्य पर मिलती हो।“
( देखें हिन्दू राष्ट्र दर्शन, सावरकर संग्रह, जिल्द 9 )
वह हिंदू को एक राष्ट् और देश के रूप में प्रस्तुत करते हैं, वह भारत को एक राष्ट्र घोषित करते हुए हिंदुओं को उसका हक़दार बताते हैं शेष लोग अल्पसंख्यक की श्रेणी में आते हैं, राष्ट्रवाद की अपने इस अवधारणा के आधार पर सावरकर का मानना है कि विभिन्न समुदायों और धार्मिक इकाइयों का किसी विशेष देश में केवल निवास करने से भारत उन लोगों को हिंदुओं की तरह नहीं मानता है। यह कहकर सावरकर वास्तव में आल इंडिया कांग्रेस के स्टैंड को निरस्त कर देना चाहते हैं, कांग्रेस का शुरू से यह उसूल और विचारधारा रही है कि भारत का हर निवासी, भारतीय नागरिक होने का हक़दार है और उसके अधिकार व विकल्प हिंदुस्तानियों के होंगे। सावरकर इससे सहमत नहीं थे, उनका स्टैंड यह रहा है कि भारत का हर व्यक्ति हिंदुस्तानी राष्ट्रवाद का हिस्सा नहीं है। वह राज्य और राष्ट्र में अंतर करते हैं, देश राष्ट्र नहीं है। राष्ट्र होने के लिए हिंदुत्व की अवधारणा का सम्मिलित होना आवश्यक है। इस आधार पर सावरकर और अधिकांश सावरकरवादी, हिंदुस्तानी मुसलमानों को हिंदुस्तानी राष्ट्रवाद का हिस्सा नहीं मानते हैं, इसके लिए उनकी उनकी दलील यह है कि अधिकांश हिंदुस्तानी मुसलमान दुनिया के अधिकांश मुसलमानों की तरह धार्मिक अवधारणा से ऊपर नहीं हैं, उनकी वफ़ादारी और संबंध मुस्लिम देशों तक सीमित रहता है, इसका उदाहरण देते हैं कि दुनिया के अन्य देशो में जहां मुसलमान ऐतिहासिक कारणों से रह रहे हैं जैसे हंगरी, पोलैंड, चीन आदि। वे वहां बहुसंख्यक हिंदुस्तानी मुसलमान की तरह अलगाववाद रखते हैं। इस प्रकार की विभिन्न बातों के आधार पर कांग्रेस की विचारधारा के विरुद्ध सावरकर यह मांग करते हैं हिंदुओं का एक अलग स्वतंत्र देश हो।( देखें आधुनिक भारत का राजनीतिक चिन्तन, पृष्ठ 349)
इसे उन्नीसवीं, बीसवीं सदी के हिंदू मुस्लिम मामलों के संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। कांग्रेस मुस्लिम लीग के बिल्कुल विपरीत राजनीतिक प्रतिक्रिया के एक रुप के तौर पर भी देखा जा सकता है। आज भी बहुत से हिंदुत्ववादी जो यह कहते हैं हिंदुस्तान केवल हिंदुओं का है, इसमें सावरकर जैसे हिंदूवादी पेशवाओं बहुत अधिक प्रभाव रहा है, ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि अगर इसमें कोई न्याय और बराबरी के स्तर पर बात करता है तो हिंदुत्ववादी भड़क जाते हैं, इसे वह हिंदुओं के वर्चस्व व गरिमा के विपरीत बताने का प्रयास करते हैं। राम जन्मभूमि मंदिर के आंदोलन में भी इसी मानसिकता को आसानी से पढ़ा जा सकता है। हमारे सामने संघ परिवार और अन्य हिंदूवादी संगठन से जुड़े प्रतिनिधि लोग कहते हैं कि हिंदुस्तान तो सदैव से हिंदुओं का है, यहाँ अयोध्या में मस्जिद के लिए बात करने का क्या औचित्य है? सावरकर ने हिंदुओं को संबोधित करते हुए कहां है कि उन्हें राष्ट्रवाद के भागो व तत्वों, एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति और इतिहास के आधार पर हिंदू राष्ट्र के रूप में एक होना होगा। फिर वह हिंदुओं को संबोधित करते हुए कहते हैं: "ए हिंदुओं! एक हो जाओ और हिंदू राष्ट्रीयता को दृढ़ बनाओ" सावरकर ने हज़ार से ऊपर पृष्ठों में हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र, हिंदू राष्ट्र दर्शन और उनके संबंध से इतिहास पर प्रकाश डालते हुए बड़ी कट्टरता से अपने विचारों व विचारधाराओं को प्रस्तुत किया है, इनमें से चुनिंदा स्थानों से ऊपर जो कुछ लिखा गया है, इससे सावरकर की विचारधारा और नक़्शे को सुंदरता से समझा जा सकता है और यह भी देखा जा सकता है कि किस प्रकार पार्टियाँ और संगठन उनकी विचारधारा और व्यवहार से उद्धरण और लाभान्वित होते हुए किस प्रकार के भारत का निर्माण करना चाहती हैं?
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